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कविता

तुम धोखा न खाना

महेश चंद्र पुनेठा


वे जो तुम से उपर की मंजिल में रहते हैं
बहुत चिकनी-चुपड़ी-मीठी भाषा में
बात करते हैं
इतनी कि
जैसे छत्ते से अब टपका तब टपका शहद हो
तुम्हें लगता है कि
दुनिया में इनसे भला कोई दूजा नहीं
काश! इस शहद को सँभाल पाते किसी बर्तन में।

खूब प्रशंसा करते हैं तुम्हारे हुनर की
तुम चासनी में डुबोए जलेबी से
रस से भर जाते हो
तुम्हें लगता है कि
दुनिया में इनसे अधिक कद्रदान कोई दूजा नहीं

तुम्हारे कंधे में भी हाथ रखते हैं
तपाक से गले मिलने में भी परहेज नहीं करते हैं
जैसे कुंभ के मेले में बिछुड़े दो भाई
तुम्हें लगता है कि
दुनिया में इनसे सगा कोई दूजा नहीं

किसी सामूहिक भोज में
तुम्हारे बगल में खड़े होकर भोजन भी कर लेते हैं
घर आकर चुपके से चाय भी पी जाते हैं
तुम्हें लगता है कि
दुनिया में इनसे बड़ा समतावादी कोई दूजा नहीं

मगर
बात होती है जब भी
खाँचों को तोड़ने
दीवारों को गिराने
समतल जमीन तैयार कर
एक नया भवन खड़ा करने की
गिनाने लगते हैं वे
सदियों पुरानी इन दीवारों
खाँचों-ढाँचों की विशिष्टताओं को
बताने लगते हैं युक्तिसंगत
उनके बनाए जाने के कारणों को
सिद्ध करने लग जाते हैं
उन्हें पूर्ण वैज्ञानिक
समाज में व्यवस्था बनाने के लिए जरूरी
ऐसे-ऐसे कुतर्क गढ़ लेते हैं कि
थोड़ी देर के लिए
तुम्हें भी उन पर विश्वास होने लगता है

कुछ नया नहीं इसमें
यह बहुत पुरान चरित्र है उनका
बस तुम धोखा न खाना।

 


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